Raksha Bandhan Shayari: ‘मैं अपने हाथ से प्यारे के बांधूं प्यार की राखी’, रक्षा बंधन पर पढ़ें ये दिलकश कलाम


Rakshabadhan Shayari: रक्षाबंधन भाई-बहन के प्यार का त्योहार है. यह एक बेहद ख़ूबसूरत त्‍योहार (Festival) होने के साथ भावनाओं का उत्सव भी है, जब बहन की रक्षा क‍िए जाने के संकल्प (Resolution) को दोहराया जाता है. यह रेशमी धागा जब भाई की कलाई पर बंधता है, तो उम्‍मीदें बंधती हैं और भाई बहन की कीमती भावनाएं इसे मूल्‍यवान बना देती हैं. इस तरह एक मामूली-सा धागा भाई-बहन को और क़रीब लाता है. यह रिश्‍तों में अपनेपन की मिठास को घोलता है. यही वजह है कि भाई अपनी बहन की हिफ़ाज़त का वचन देते हैं और ज़िंदगी भर इसे निभाते भी हैं.

भाई बहन के रिश्‍ते की ख़ूबसूरती जहां इस त्‍योहार को और ख़ास बनाती है, वहीं कवियों और शायरों के शब्‍दों ने भी इस रिश्‍ते की खू़बसूरती को बेहद दिलकश अंदाज़ में पेश किया है. उनके शब्‍दों में जहां बहन की उम्‍मीदें राखी में पिरोई दिखती हैं, वहीं भाई के जज्‍़बातों भी गहरे अल्‍फ़ाज़ में ढले नज़र आते हैं. ऐसे में इस ख़ास मौके पर आप भी ज़रूर लुत्‍फ़ उठाएं इस दिलकश शायरी का और अपने त्‍योहार को और ख़ास बना लें.

ज़री के तार की राखी
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी

सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी

बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी

सलोनों में अजब रंगी है उस दिलदार की राखी

न पहुंचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी

अयां है अब तो राखी भी चमन भी गुल भी शबनम भी

झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी

तमाशा है अहा हा-हा ग़नीमत है ये आलम भी

उठाना हाथ प्यारे वाह-वा टुक देख लें हम भी

तुम्हारी मोतियों की और ज़री के तार की राखी

मची है हर तरफ़ क्या क्या सलोनों की बहार अब तो

हर इक गुल-रू फिरे है राखी बांधे हाथ में ख़ुश हो

हवस जो दिल में गुज़रे है कहूं क्या आह मैं तुम को

यही आता है जी में बन के बाम्हन, आज तो यारो

मैं अपने हाथ से प्यारे के बांधूं प्यार की राखी

हुई है ज़ेब-ओ-ज़ीनत और ख़ूबां को तो राखी से

व-लेकिन तुम से ऐ जां और कुछ राखी के गुल फूले

दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके

तुम्हारे हाथ ने मेहंदी ने अंगुश्तों ने नाख़ुन ने

गुलिस्तां की चमन की बाग़ की गुलज़ार की राखी

अदा से हाथ उठते हैं गुल-ए-राखी जो हिलते हैं

कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं

कहां नाज़ुक ये पहुंचे और कहां ये रंग मिलते हैं

चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं

जो कुछ ख़ूबी में है उस शोख़-ए-गुल-रुख़्सार की राखी

फिरें हैं राखियाँ बांधे जो हर दम हुस्न के तारे

तो उन की राखियों को देख ऐ जां चाव के मारे

पहन ज़ुन्नार और क़श्क़ा लगा माथे ऊपर बारे

‘नज़ीर’ आया है बाम्हन बन के राखी बांधने प्यारे

बंधा लो उससे तुम हंस कर अब इस त्योहार की राखी
(नज़ीर अकबराबादी)

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भाई-बहन
देखो भय्या मान भी जाओ

मेरा घरौंदा यूं न गिराओ

मेहनत से है मैं ने बनाया

अपनी गुड़िया को है बिठाया

डांट अम्मी से खिलवा दूंगी

अब्बा से मैं पिटवा दूंगी

मेरा घरौंदा ढाया तुम ने

मेरा खेल मिटाया तुम ने

रोती हूं तो हंसते हो तुम

बड़े ही अच्छे लगते हो तुम

मैं भी गेंद तुम्हारी ले कर

फेंकूंगी अब छत के ऊपर

रोओगे तो ख़ूब हंसूंगी

कोई खिलौना तुम्हें न दूंगी

अच्छा देखो मुंह न बिसोरो

सारी चीज़ें आ के समेटो

आओ घरौंदा फिर से बनाएं

गुड़िया गुड्डा इस में बिठाएं

आओ कर दें ख़त्म लड़ाई

मैं हूं बहन तुम मेरे भाई
(सय्यदा फ़रहत)

(साभार/रेख्‍़ता)

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