चैत्र नवरात्रि से जुड़ा कारण और परंपरा
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चैत्र नवरात्रि से जुड़ा कारण और परंपरा
चैत्र नवरात्रि का पर्व इस बार 2 अप्रैल से आरंभ होकर 11 अप्रैल को पूर्ण होगा। चैत्र नवरात्रि के पर्व से जुड़ी मान्यताएँ और इस पर्व को मनाने का कारण आज हम आपको इस लेख में बताएंगे।
चैत्र नवरात्रि का पर्व पूरे भारत में धूम धाम से मनाया जाता है। इन 9 दिन भक्त देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा करते हैं। नवरात्रि के प्रथम दिन के साथ हिंदू नव वर्ष का आरंभ होता है। चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिन ही माँ दुर्गा का जन्म हुआ था। देवी दुर्गा के कहने पर ही भगवान ब्रह्मा ने संसार की रचना की थी। इसलिए चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा तिथि से हिंदू नववर्ष का आरंभ होता है। चैत्र शुक्ल की नवमी तिथि के दिन भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान श्रीराम का जन्म धरती पर हुआ था।
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देवी दुर्गा शक्ति का रूप है इसलिए उनका एक नाम आदि शक्ति भी है। इन्हें हिंदू धर्म में सबसे प्राचीन दैवीय शक्ति का दर्जा प्राप्त है। देवी दुर्गा का जन्म बुराइयों का नाश करने के लिए हुआ था।
जो भी चैत्र नवरात्रि में देवी दुर्गा की पूजा अर्चना करते हैं उसके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है। इसलिए पूरे भारत में चैत्र नवरात्रि का पर्व भव्य तरीके से मनाते है। सभी जगह देवी के मंदिर सज जाते हैं। मंदिरों में मेले तथा विशेष कार्यक्रम का आयोजन भी किया जाता है। इन नौ दिनों में देवी के मंदिरों में भक्तजनों की भीड़ देखने लायक होती है। देवी के प्रसिद्ध मंदिरों और शक्तिपीठों के दर्शन करने के लिए भक्त लाखों की संख्या में पहुंचते हैं जो सामान्य दिनों की संख्या से कई गुना होती है। भारत के उत्तरी राज्यों जैसे कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में यह पर्व काफी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। वहीं महाराष्ट्र में चैत्र नवरात्रि के साथ गुड़ी पड़वा पर्व की शुरुआत होती है।
हर क्षेत्र में नवरात्रि से जुड़ी अलग अलग परंपराएं और मान्यताएँ प्रचलित है। परन्तु कुछ ऐसी प्रथाएँ हैं जिनका पूरे भारत में समान रूप से पालन किया जाता है। आइए जानते हैं क्या है वह परंपरा।
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देवी दुर्गा के भक्त पूरे भारत में कहीं भी हो वह नवरात्रि के प्रथम और अंतिम दिन व्रत अवश्य रखते हैं। कहीं कुछ गलत ऐसे भी होते हैं जो पूरे 9 दिन कठिन व्रत करते है।
हिंदू धर्म में कलश को सुख समृद्धि वैभव और मंगल कार्यों का प्रतीक माना गया है। इसलिए भक्त नवरात्रि में घर में कलश की स्थापना अवश्य करते हैं। सबसे पहले वह स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं इसके बाद देवी दुर्गा की चौकी भी स्थापित कर उनके सम्मुख कलश की स्थापना करते हैं। कलश स्थापना के पश्चात् देवी को धूप दीप दिखा कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है।
कलश की स्थापना के साथ जौ भी बोये जाते हैं। किंतु लोगों को इसके पीछे का कारण नहीं मालूम है। आज हम आपको जौ बोने का कारण बताएंगे। जब सृष्टि का आरंभ हुआ था तो सबसे पहले जो फसल उत्पन्न हुई थी वह जौ की फसल थी। इसी कारण से किसी भी शुभ कार्य या पूजा पाठ के कार्यों में जौ का उपयोग किया जाता है। साथ ही बसंत ऋतु की पहली फसल जौ ही आती है। इसलिए यह देवी दुर्गा को चढ़ावे के रूप में अर्पित की जाती है। इतना ही नहीं देवी दुर्गा के सम्मुख जो जौ बोये जाते हैं वह भविष्य का संकेत देते हैं। घर में बोये गये जौ यदि तेज़ी से बढ़ते हैं तो घर में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है वहीं यदि जौ मुरझाए हुए रहते हैं और धीमे धीमे बढ़ते हैं तो भविष्य में अशुभ घटना घट सकती है, यह इस बात का संकेत देते हैं। देवी दुर्गा की 9 दिन की पूजा के बाद उनके भक्त कन्या पूजन करते हैं। देवी की पूजा में कन्या पूजन का विशेष महत्व है। कहीं पर अष्टमी वाले दिन तो कहीं पर नवमी वाले दिन भक्त नौ कुवारी कन्याओं को देवी का रूप मानकर उनकी पूजा करते हैं। उन्हें अपने घर में बुलाकर भोग खिलाते हैं। उसके बाद कन्या रूप में आई देवी को भेंट देकर विदा करते हैं। कन्या पूजन के साथ भक्त प्रसाद खाकर अपना व्रत खोलते हैं और इसी के साथ देवी दुर्गा की नवरात्रि का समापन होता है।
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