पाकिस्तान समर्थक सैयद अली शाह गिलानी के निधन के साथ ही अलगाववादी राजनीति के एक अध्याय का अंत
पाकिस्तान समर्थक अलगावादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को श्रीनगर में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया है. कश्मीर में व्यापक पैमाने पर मोबाइल सर्विस बंद किए जाने के साथ ही कड़ी सुरक्षा और पाबंदियों के बीच उनका अंतिम संस्कार किया गया. गिलानी के निधन के साथ ही कश्मीर में भारत-विरोधी और अलगाववादी राजनीति के एक अध्याय का अंत हो गया. गिलानी के निधन पर तमाम पाकिस्तानी नेता लगातार दुख प्रकट कर रहे हैं.
गिलानी के पाक प्रेम का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके निधन पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान का राष्ट्रीय ध्वज आधा झुकाने का एलान किया है. साथ ही एक दिन का आधिकारिक शोक मनाने की घोषणा की है. राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने भी उनके निधन पर गहरा दुख जताया. उन्होंने पिछले साल गिलानी को पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ से सम्मानित किया था.
सैयद अली शाह गिलानी भी जिंदगीभर पाकिस्तान की तरफदारी करते रहे. उन्होंने समय-समय पर अजीबो-गरीब बयान देकर अपना पाकिस्तान प्रेम जताया है. साल 2015 में उन्होंने कहा था कि मैं मजबूरी में भारतीय हूं, जन्म से नहीं. हालांकि बाद में पासपोर्ट अधिकारी के सामने पेश होने के दौरान औपचारिकताएं पूरी करने के लिए उन्हें खुद को भारतीय बताना ही पड़ा था. लेकिन ऑफिस से बाहर निकलते ही फिर अपने असली रंग में आ गए थे.
आंतकवादी संगठनों में भी काफी लोकप्रयिता रही है. लश्कर-ए-तौयबा जैसा खूंखार आतंकी संगठन उन्हें ‘हर दिल अजीज’ नेता कहता था. शायद इसकी वजह से ये हो सकती है कि गिलानी जिंदगीभर कश्मीर का पाकिस्तान में विलय किए जाने की मांग करते रहे. वह भारत से आजादी और पाकिस्तान के साथ एकीकरण की मांग करते रहे हैं.
अलगाववादी राजनीति के एक अध्याय का अंत
जम्मू-कश्मीर में तीन दशकों से अधिक समय तक अलगाववादी मुहिम का नेतृत्व करने वाले गिलानी का जन्म 29 सितंबर 1929 को बांदीपुरा जिले के एक गांव में हुआ था. उन्होंने लाहौर के ‘ओरिएंटल कॉलेज’ से अपनी पढ़ाई पूरी की. ‘जमात-ए-इस्लामी’ का हिस्सा बनने से पहले उन्होंने कुछ वर्ष तक एक शिक्षक के तौर पर नौकरी की. कश्मीर में अलगाववादी नेतृत्व का एक मजूबत स्तंभ माने जाने वाले गिलानी भूतपूर्व राज्य में सोपोर निर्वाचन क्षेत्र से तीन बार विधायक रहे. उन्होंने 1972, 1977 और 1987 में विधानसभा चुनाव जीता हालांकि,1990 में कश्मीर में आतंकवाद बढ़ने के बाद वह चुनाव-विरोधी अभियान के अगुवा हो गए.
वह हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे, जो 26 पार्टियों का अलगाववादी गठबंधन था. लेकिन बाद में उन नरमपंथियों ने इस गठबंधन से नाता तोड़ लिया था, जिन्होंने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए केन्द्र के साथ बातचीत की वकालत की थी. इसके बाद 2003 में उन्होंने तहरीक-ए-हुर्रियत का गठन किया. हालांकि, 2020 में उन्होंने हुर्रियत राजनीति को पूरी तरह अलविदा कहने का फैसला किया और कहा कि 2019 में अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को खत्म करने के केंद्र के फैसले के बाद दूसरे स्तर के नेतृत्व का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा. गिलानी को 2002 से ही गुर्दे संबंधी बीमारी थी और इसके चलते उनका एक गुर्दा निकाला भी गया था. पिछले 18 महीने से उनकी हालत लगातार बिगड़ रही थी.
ये भी पढ़ें-
अलगाववादी नेता गिलानी का निधन: पाकिस्तान में एक दिन का राजकीय शोक, कांग्रेस ने इमरान सरकार को लताड़ा