Tuesday, November 23, 2021
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मुलायम सिंह यादव कभी कांग्रेस से नहीं हारे, बेटे से हारे


सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव आज अपने बेटे के कारण राजनीति और मीडिया दोनों से दूर नजर आते हैं। इसके पीछे का कारण कहीं न कहीं वो कांग्रेस को भी मानते हैं। ये वही कांग्रेस है जिसे कई बार मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक इतिहास में हार का मुंह दिखाया है, परंतु वो पुत्र मोह के कारण अखिलेश यादव से हारते दिखे।

आज समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन है। मुलायम सिंह यादव की गिनती दिग्गज नेताओं में होती है, परन्तु आज वो अपने बेटे के कारण मीडिया और राजनीति दोनों से दूर नजर आते हैं। सपा संस्थापक अपने परिवार के कारण कमजोर पड़ गए और आज भी वो अपने भाई और बेटे के बीच के विवाद को सुलझा नहीं सकें हैं। वर्ष 2017 में कांग्रेस के साथ चुनाव में जाने के अखिलेश के निर्णय ने यादव परिवार के साथ पार्टी को भी कमजोर कर दिया। ये निर्णय पार्टी में कई बड़े नेताओं को रास नहीं आया। कारण अखिलेश यादव की अपनी मनमानी करना भी रहा है। अब हम आज आपको बताएंगे कि जिस कांग्रेस को लेकर अखिलेश यादव नरम दिखाई देते हैं उस कांग्रेस के साथ सपा का इतिहास कड़वाहट भरा रहा है। ऐसे कई अवसर आये जब सपा और कांग्रेस के बीच मतभेद देखने को मिले, परन्तु कई अवसर ऐसे रहे जब कांग्रेस की हर चाल का जवाब मुलायम सिंह यादव एक कदम आगे बढ़कर देते थे।

1967 में जब कांग्रेस ने उड़ाया था मजाक, जीत से दिया जवाब

मुलायम सिंह यादव हमेशा से अखाड़े को अपनी कर्मभूमि मानते थे। हालांकि, राम मनोहर लोहिया के आंदोलन से वो जुड़े हुए थे और उन्हें अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। उस समय जसवंत नगर से विधायक सोशलिस्ट पार्टी के नाथूसिंह की नजर उनपर पड़ी तो वो मुलायम सिंह यादव से काफी प्रभावित हुए। इसके बाद उन्होंने इस सीट से चुनाव लड़ने के लिए मुलायम सिंह यादव के नाम की घोषणा की थी। इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव के सामने कांग्रेस उम्मीदवार लाखन सिंह यादव, एडवोकेट खड़े हुए थे। उस समय कांग्रेस नेताओं ने उन्हें ‘कल का छोरा’ कहते हुए तंज कसा और उनका मजाक उड़ाया था। चुनाव के नतीजों में मुलायम सिंह यादव ने एकतरफा जीत हासिल की और कांग्रेस की बोलती बंद कर दी। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके बाद मुलायम सिंह यादव कई बार इस सीट से जीते।

1990 में कांग्रेस की चाल पर फेरा पानी

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1989 में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार बनी और यूपी में मुलायम सिंह यादव की। करीब एक वर्ष के अंदर ही वीपी सिंह की सरकार गिर गयी और कांग्रेस की मदद से चन्द्रशेखर की सरकार बनी। उस समय मुलायम सिंह यादव ने भी वीपी सिंह को छोड़ चन्द्रशेखर का साथ दिया। ऐसे में कांग्रेस ने 1990 में यूपी में मुलायम सिंह को समर्थन देकर उनकी सरकार गिरने से बचा लिया। हालांकि, चन्द्रशेखर की सरकार 4 महीने भी न चल सकी। कांग्रेस से टकराव के बाद उन्होंने केंद्र से इस्तीफा दे दिया। चंद्रशेखर का साथ क्या छूटा कंग्रेस ने भी प्रदेश में समर्थन वापस लेने की योजना बनाई। इसकी भनक एक दिन पूर्व मुलायम सिंह यादव को लग गयी।

अगली सुबह ही मुलायम सिंह यादव तत्कालीन राज्यपाल बी सत्यनारायण रेड्डी के पास पहुंचे और अपना इस्तीफा दे दिया। तब तत्कालीन राज्यपल ने इस्तीफा स्वीकार कर उन्हें अगली व्यवस्था होने तक कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने रहने के लिए कहा था।
मुलायम सिंह के इस कदम से कांग्रेस की रणनीति धरी की धरी रह गयी थी।

1999 जब कांग्रेस नहीं बना सकी सरकार

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में भी इस बात का उल्लेख किया है कि कैसे 1999 में कांग्रेस सरकार बनाने में असफल रही थी। दरअसल, 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार के प्रतिनिधि के रूप में प्रधानमंत्री पद एच. डी. देवेगौडा को मिला। देवगौड़ा की सरकार में मुलायम सिंह यादव रक्षामंत्री बनाए गए थे, किंतु यह सरकार भी ज़्यादा दिन चल नहीं पाई। इसके बाद मुलायम सिंह यादव का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सामने आया था, परंतु यादव नेताओं ने ही उन्हें अपना समर्थन नहीं दिया।

एच. डी. देवेगौडा ने भी इसपर प्रकाश डालते हुए बताया था कि “मुलायम सिंह यादव का नाम सामने आया, लेकिन दो दूसरे यादव नेताओं ने अपने हाथ पीछे खींच लिए। लालू और शरद यादव ने दूसरे यादव के सामने दूसरी पंक्ति में खड़े होने से इनकार कर दिया।” इसके बाद 1997 में आईके गुजराल देश के प्रधानमंत्री बने थे। परंतु ये सरकार भी जल्द ही गिर गई। वर्ष 1999 में फिर लोकसभा चुनाव हुए और कांग्रेस को उम्मीद थी कि मुलायम सिंह यादव समर्थन करेंगे, परंतु उनके समर्थन का आश्वासन ना मिलने पर कांग्रेस सरकार बनाने में असफल रही थी। तब एनडीए ने अपनी सरकार बनाई थी।

2002 में कांग्रेस का नहीं दिया साथ

साल 2002 में तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन का कार्यकाल खत्म हो रहा था। यूपीए अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति पद पर बिठाना चाहती थी, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के पास बहुमत नहीं था कि वो अपनी पसंद का राष्ट्रपति बना सके। तब समाजवादी पार्टी ने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे अब्दुल कलाम के नाम का प्रस्ताव रखा और एनडीए सरकार ने इस प्रस्ताव को अपना समर्थन दिया। इस निर्णय ने कांग्रेस को ऐसी मुश्किल स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि उसे भी मजबूरन अपना समर्थन देना पड़ा था।

हलांकि, एक तथ्य ये भी है कि मुलायम सिंह यादव ‘भाजपा’ के क़रीबी होने टैग लगने से बचते रहे, जबकि राजनीतिक गलियारों में यह बात मशहूर है कि अटल बिहारी वाजपेयी से उनके व्यक्तिगत रिश्ते बेहद मधुर थे। वर्ष 2003 में उन्होंने भाजपा के अप्रत्यक्ष सहयोग से ही प्रदेश में अपनी सरकार बनाई थी। इसके अलावा वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव के शुरुआत में समाजवादी पार्टी महागठबंधन के साथ थी, परंतु सीट बंटवारे पर मतभेद के बाद महागठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ा था। हालांकि, महागठबंधन सरकार बनाने में सफल रही थी परंतु ये सरकार ज्यादा दिन नहीं चल सकी।

कांग्रेस के साथ मतभेद की कहानी सपा के साथ वर्षों पुरानी है, परंतु अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा-कांग्रेस के बीच तनाव कम हुआ। वर्ष 2017 में तो ये उत्तर प्रदेश के चुनावों साथ साथ नजर आए थे।

अखिलेश यादव के इस कदम से मुलायम सिंह यादव काफी नाराज हुए थे। अखिलेश यादव इससे भी नहीं माने और लखनऊ के पार्टी दफ्तर से अपने पिता का नाम हटाकर अपना नाम लगा दिया। इसके बाद पार्टी चिन्ह को लेकर अपने पिता के खिलाफ खड़े हुए अखिलेश यादव यहाँ भी जीत गए। इन घटनाओं से मुलायम सिंह यादव काफी आहत हुए थे। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में इतने प्रयासों के बावजूद अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा को हार मिली। इस हार के लिए मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस को ही जिम्मेदार बताया था।

इसके बाद शिवपाल सिंह यादव ने अपनी नई पार्टी बनाई, परंतु मुलायम सिंह यादव बेटे के हाथों हार स्वीकार करते हुए अपने बेटे के लिए ही अक्सर चुनाव प्रचार में खड़े दिखाई दिए। इससे स्पष्ट हो गया कि मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन पर पुत्र मोह भारी पड़ गया।





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