Motivational Quotes, Chaupai, ramcharitmanas: रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास जी ने संत समाज, संत वंदना और संत संगति की व्याख्या अद्भुत की है. संतों के हृदय की निर्मलता और समता के विषय में बताया है साथ ही गोस्वामी जी अपना अभिमान दूर करते हैं अहंकार, पाप का मूल है और अमंगलकारी भी है इसलिए उनकी वाणी में इसका त्याग स्पष्ट दिखाई देता है.
मज्जन फल पेखिअ ततकाला ।
काक होहिं पिक बकउ मराला ।।
सुनि आचरज करै जनि कोई।
सतसंगति महिमा नहिं गोई ।।
संत समाज के प्रयाग में स्नान करने का फल तुरंत दिखाई पड़ता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस. यह सुनकर कोई आश्चर्य होता है लेकिन तुलसी बाबा ने कहा कि यह सुनकर कोई आश्चर्य न करें क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है .
बालमीक नारद घटजोनी ।
निज निज मुखनि कही निज होनी ।।
जलचर थलचर नभचर नाना ।
जे जड़ चेतन जीव जहाना ।।
वाल्मीकि जी, नारद जी और अगस्त्य जी ने अपने मुखों से अपने जीवन में हुई घटनाओं के विषय में बताया है. जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस संसार में हैं.
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति ऐश्वर्य और भलाई पायी है, वो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिये. वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है .
बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री राम जी की कृपा के बिना वह सत्संग सरलता से नहीं मिलता है. सत्संगति आनन्द और कल्याण की जड़ है. सत्संग की सिद्धि प्राप्ति ही फल है और सब साधन तो फूल हैं.
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।
पारस परस कुधात सुहाई ।।
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं।
फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।।
दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुन्दर सोना बन जाता है किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं जैसे- साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी ।
कहत साधु महिमा सकुचानी ।।
सो मो सन कहि जात न कैसें ।
साक बनिक मनि गुन गन जैसें ।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कवि और विद्वानों की वाणी भी संत-महिमा का वर्णन करने में संकोच नहीं करती है है. तुलसी दास जी कहते है जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण नहीं कहे जा सकते उसी प्रकार संत रूपी मणि की महिमा मुझसे नहीं कही जा सकती.
दोहा—
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ।।
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ।।
मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु. जैसे- हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगन्धित करते हैं वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों में ही समान भाव रखकर दोनों का भला करते हैं . संत सरल हृदय और संसार के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री राम जी के चरणों में मुझे प्रेम दीजिये.
साधु चरित सुभ चरित कपासू के समान, संत समाज की त्रिवेणी में डुबकी लगाने से मिलते है इसी लोक में सब फल